Saturday, 17 October 2015

पिता

पिता



सज्जनता आजकल अभिशप्त है कभी से
कमजोर इस दौर में दमित है सभी से
क्या दीन अब तुम्हारी भी नज़र में हीन हो गया है ?
तू तो पिता है तो तू क्यों तमाशबीन हो गया है ?
ये सवाल थे मेरे उस परमपिता से जो सबका है
कोई नही आया इनका जबाब देने फिर किसी ने मन में कहा
तुझे क्या लगता है तुझे दर्द देकर मैं खुश होता हु । 
अरे पगले तेरी तकलीफ़ पर अकेले में, मैं ख़ुद भी रोता हूँ । 
अन्याय ना करना किसी से ये मेरी  विवशता है
तुझे दर्द देकर मुझे कितना सुख मिलता है ये मेरा दिल समझाता है । 
एक जिम्मेदार पिता होगा तो समझेगा थोड़ा बहोत
पर परमेश्वर होना अलग ही है कुछ । 

कलियुग की यथार्थता

कलियुग की यथार्थता


आज  एक आदमी मृत्यु सैया पर लेटा है
जो धर्मपरायण था
उसके जिस्म का कतरा कतरा बिंध गया है
जो हमेशा ही सच पर अड़ा था
लगता है उनके ईमानदारी का फ़ल
उनके जख्मो से निकल रहा है 
यही कलियुग की यथार्थता हो शायद
हो यही परिणाम सद्कर्म का  शायद
उसके आँशु जो कभी प्रेम में बहे थे प्रभु के
आज अनायाश दर्द में बहते है
अहित ना करने का भाव जिसके अंतर्मन में समाहित था
वही आज एक दारुण ब्यथा को सहते है
यही कलियुग की यथार्थता हो शायद
   हो यही परिणाम सद्कर्म का  शायद 
मुझे मृत्यु की वास्तविकता से बिछोभ नही
ना ही जीवन के विषमताओं से है
पर लोगो से सुना था अच्छाई का परिणाम भला होता है देखा नही l
यही कलियुग की यथार्थता हो शायद.   
 हो यही परिणाम सद्कर्म का  शायद