कलियुग की यथार्थता
आज एक आदमी मृत्यु सैया पर लेटा है
जो धर्मपरायण था
उसके जिस्म का कतरा कतरा बिंध गया है
जो हमेशा ही सच पर अड़ा था
लगता है उनके ईमानदारी का फ़ल
उनके जख्मो से निकल रहा है
यही कलियुग की यथार्थता हो शायद
हो यही परिणाम सद्कर्म का शायद
उसके आँशु जो कभी प्रेम में बहे थे प्रभु के
आज अनायाश दर्द में बहते है
अहित ना करने का भाव जिसके अंतर्मन में समाहित था
वही आज एक दारुण ब्यथा को सहते है
यही कलियुग की यथार्थता हो शायद
हो यही परिणाम सद्कर्म का शायद
मुझे मृत्यु की वास्तविकता से बिछोभ नही
ना ही जीवन के विषमताओं से है
पर लोगो से सुना था अच्छाई का परिणाम भला होता है देखा नही l
यही कलियुग की यथार्थता हो शायद.
हो यही परिणाम सद्कर्म का शायद
No comments:
Post a Comment