Saturday, 17 October 2015

कलियुग की यथार्थता

कलियुग की यथार्थता


आज  एक आदमी मृत्यु सैया पर लेटा है
जो धर्मपरायण था
उसके जिस्म का कतरा कतरा बिंध गया है
जो हमेशा ही सच पर अड़ा था
लगता है उनके ईमानदारी का फ़ल
उनके जख्मो से निकल रहा है 
यही कलियुग की यथार्थता हो शायद
हो यही परिणाम सद्कर्म का  शायद
उसके आँशु जो कभी प्रेम में बहे थे प्रभु के
आज अनायाश दर्द में बहते है
अहित ना करने का भाव जिसके अंतर्मन में समाहित था
वही आज एक दारुण ब्यथा को सहते है
यही कलियुग की यथार्थता हो शायद
   हो यही परिणाम सद्कर्म का  शायद 
मुझे मृत्यु की वास्तविकता से बिछोभ नही
ना ही जीवन के विषमताओं से है
पर लोगो से सुना था अच्छाई का परिणाम भला होता है देखा नही l
यही कलियुग की यथार्थता हो शायद.   
 हो यही परिणाम सद्कर्म का  शायद 

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