Friday, 30 July 2021

मुंशी प्रेमचंद (एक सच्चे शिल्पकार) "Munshi Premchand (ek sachche shilpkar)"

 


एक कथाकार ही नहीं थे 

एक अच्छे शिल्पकार थे वो 

अपनी रचनाओ में सच्चाई की मिट्टी मिलाते, 

दुख-सुख का लेप लगा कुछ ऐसा दिखाते  

जो कड़वा सच था समाज का

जो आंतरिक रूप था दराज का  

कुछ ऐसे ढंग के कलाकार थे वो


आसान नहीं होता, सबके बीच रहकर 

अपने वजूद को मरने ना देना 

सब डूबे पड़े हो, पर खुद को अलग करके 

सबके जैसा बनने ना देना 

एक पैनी नजर के धनी 

एक उम्दा अदाकार थे वो 


विरोध उस वक्त व्यक्त किया 

जब कोई आवाज नहीं उठाता था 

जो लिखता लीक से हटकर 

उसके कोई साथ नहीं आता था 

अपने में सँजोये हुए एक पूरा संसार थे वो 

एक कथाकार ही नहीं थे 

एक अच्छे शिल्पकार थे वो 

"कुछ कहना है" "Kuchh Kahana Hai "


 

तुम हर बार मुझसे कहते हो 

"कुछ कहना है"

पर वो क्यू नहीं कहते ?

जो कहना है 

सारी बातें हो जाती है, पूरी मुलाकातें हो जाती हैं 

फिर कुछ बचा कैसे रह जाता है ?

जो कहना है

सब सुनता तो हूँ,

कुछ छूट कैसे जाता है ?

सब कह के भी मुझसे, 

तू रूठ कैसे जाता है ?

और फिर कहते हो मुझसे 

"कुछ कहना है"

आई का दुख-सुख, भाई की कहानी 

मोहल्ले की खबर, सखियों की जुबानी 

कॉलेज का आना-जाना, गलियों का वो ताना-बाना 

सब कुछ तो कह डाला है तुमने 

अब कह भी दो 

"जो कहना है"