Wednesday, 13 February 2013

 अब  तमन्ना   है   भुला दे मुझको 
 मै  तुझसे दूर चला जाऊ कुछ ऐसा सिला दे मुझको 
तेरी परेशानियो, मजबुरियो का आगाज हु 
समझ इन  लाश  दे जला दे मुझको 
बहोत हो चुका साथ तेरे खुशियो का सफ़र 
करके तनहा आज रुला दे मुझको 
 

याँदे

याँदे



 वो तेरा  आग  सा जलता बदन 
वो तेरी  आँखों की खुमारी
वो तेरे सुर्ख खुले होंठ 
वो तेरे लबो की लाली 
मुझे सब  कुछ है याद 
कुछ भी तो नहीं भुला 

वो तेरा झूठा सा गुस्सा 
वो छोटी बातो पे रोना 
वो मेरा मनना 
वो तेरी गोंद में सोना   
मुझे सब  कुछ है याद 
कुछ भी तो नहीं भुला 
वो सुबह सुबह तेरा हसते हुए आना 
वो चुपके से  देखना,और हसते हुए जाना 
मुझे सब  कुछ है याद 
कुछ भी तो नहीं भुला 

वो मुझे छोड़कर तेरा पढ़ने को जाना 
वहा  मन का न लगाना  और लौट के आना 
वो आये थे तुम जब  दरवाजे से अन्दर 
मुझे देखकर मेरे सिने  से लग जाना 
मुझे सब  कुछ है याद 
कुछ भी तो नहीं भुला 

वो आमो के पेड़ो  से अमिया चुराना 
चुरा के छुपाना और चुपके से खाना 
वो नानी की डांटे, वो सुबह तक  की बाते 
मुझे सब  कुछ है याद 
कुछ भी तो नहीं भुला 


वो फोन न कर पाने पर  तेरा मुझसे झगड़ना 
वो सबकुछ समझके  भी कुछ ना समझना 
वो  मेरे लिए कुछ तेरा बनाना 
वो तकना मुझे  और अपने हाथो से खिलाना 
मुझे सब  कुछ है याद 
कुछ भी तो नहीं भुला 

वो एक गलती  पर मेरी  तेरी  आँखों की बरसाते 
मानो जिन्दा था मै पर अटक गयी हो सांसे 
वो वेलेंटाइन  का दिन और जुदाई  की राते 
मुझे सब  कुछ है याद 
कुछ भी तो नहीं भुला 

वो  कान्हा की मूर्ति जो तुमने  दिया था
वो निशान अपने  मुहब्बत के जो मैंने दिया था 
 खुश थी तुम पर दर्द भी सहा था 
मुझे सब  कुछ है याद 
कुछ भी तो नहीं भुला  










अन्दर के शैतान


अन्दर के शैतान



मैंने महसूस किया है अपने अन्दर के शैतान को
क्या अपने किया है?
जो बुराइयो पर खिलखिलाता है और दमित हो जाता है सद्कर्मो से
जो झाकता है इन आँखों से मैल के परदे चढ़ाकर
जो छल करता है बेबशो से मासूम सा चेहरा बनाकर

मैंने महसूस किया है अपने अन्दर के शैतान को
क्या अपने किया है?
मैंने देखा है उसके आते ही कैसे गलत और सही का भेद मिट जाता है
कैसे वो एक इन्सान से धीरे धीरे हैवान में बदल जाता है
कैसे वो सब कर जाता है जिसकी कभी उम्मीद भी  नहीं होती
और कैसे मेरे अन्दर की अच्छाईया रोती रहती सिसकती रहती
मैंने देखा है और
कई मर्तबा अफ़सोस भी  किया है कि मै ऐसा कैसे कर सकता हूँ
कैसे मुझे रुचिकर हो जाता है जो मै खुद करना पसंद नहीं करता हूँ
मैंने देखा है दीन के आंशुओ का उसपर कोइ फर्क नहीं पड़ता
वो बर्बर होकर लड़ने लगता जब कोई उसे सीधा दिखता
मैंने देखी है उसके अन्दर क्रूरता, पशुता, निर्ममता
मै नफरत करता हु उससे, मै जीतना चाहता हु उसे, और दमित करना भी
क्योकि वो दबा देता है मेरे सद्चरित्र को
दूषित कर देता है मेरे स्वछन्द मन को और मेरे अस्तित्व को
मै परिमार्जित होना चाहता हु,सौम्य , सुवासित , सुगंधमय
ताकि मेरे अपने गर्व कर सके मुझपर
ताकि एक दीप जला सकूँ अपने अंतर्मन में निरंतर

मै प्रायसरत हूँ क्या आप भी है

PRADEEP K.DUBEY





Sunday, 20 January 2013

आँखों में समंदर

आँखों में समंदर


आज तक है  दिल  कुछ  उदास उदास
जाने क्या ढूढूता है ये मेरा दिल
सब कुछ तो यही है मेरे पास
जाने किसकी  है इसे तलाश

वो  वीरान राहे वो  सूनी सी डगर
खोयी नहीं अभी तक आँखों का वो मंजर
वो बेख़ौफ़ मेरा चलना वो पीठ का खंजर
जो तुमने दिया है मुझे तोहफाये उल्फत
जिंदगी की उदासी और आँखों में समंदर

तुम तो मेरे अपने थे सौपा था तुम्हे सब कुछ
जानते थे मुझे और मेरे हालातो को तुम तो न थे अनबुझ
कैसे कैसे गिर के सम्हला था और सम्हाला था खुद को
जो गिरा दिया यू ही अनजाने में वो मस्स्कत से भरा था बूंद बूंद

खैर  कोई शिकायत अब तुमसे क्या ?
जो मिला है अब मेरा है
अब यही मेरा रहे हमसफ़र होगा गरौं से क्या ?


आज़ और कल


आज़ और कल
जब हम छोटे थे तो समझाते न थे लोगो की चालो को
समझते ना थे उनके दोतरफ़ा व्यक्तित्व को उनके इरादों को
तो हम प्यारे थे सबके प्यारे अच्छे थे और सच्चे
क्योंकी हमें समझ ना थी की समझ सके उनकी समझ को
और समझ सके उनके प्यार करने की वजह को

अब जब हम समझदार हो गए है समझ जाते है हर बात
कई बार तो जो नहीं समझना चाहिए उसे भी
तो बिखर जाता है हमारे आस पास का ढोंगा व्यक्तित्व
उनके दो तरफ़ा रंगों का समायोजन और उसका अस्तित्व

खुल जाती है गुत्थियो से उलझी हुई रस्शिया
तो हम प्यारे न रह गए ना अच्छे ना सच्चे
क्योकि इन आँखों ने सिख ली है पहचान
अपने और पराये की दूरिया और घराए की
जान चुकी है जो दिखता है जरुरी नहीं की हकीकत हो
लुभावने फूल जिनसे बरबस मन खिचा जो रहा हो ना हो एक  मुसीबत हो


इन आँखों ने इस भोले मन ने सीख ली है पहचान
 अब छलना न होगा आसान
हाँ अब  ये संभव है उनको भी न पड़ जाये समझ की मार जो है पाक इन्सान

अति भली न थी चाहे नासमझी की हो या समझदारी की
पर हमने तो यही सिखा है जब भी करेंगे अति ही होगी

PRADEEP K. DUBEY